Thursday

मेरी साइकिल


धूल की चादर ओढ़े  मेरी पुरानी साइकिल 
यूँ तांक रही थी मेरी राह 
जैसे गांव में बैठे बूढ़े बाबा 
सी रहे थे अपने परदेसी बेटे के आने की राह   

मेरे कदमों की आहट पहचान 
बिजली सी दौड़ी उसके ज़ेहन में 
फिर भी बूत बनी खड़ी रही  
धूल से चुप्पी ढ़की रही 

दुबक के बैठी थी कोने में 
मन मार रहा था झूम के हिलोरें
बरसों बाद लौटी थी उसकी सवारी 
लेकर साथ अपने एक मोटर गाड़ी 

डाली जब उसने एक नज़र अपने ऊपर
पाया खुद को बिलकुल धूल ग्रस्त 
पंक्चर टायर, उखड़ा पेंट, फटी सीट 
रुआंसी सी हो गयी बेचारी 
अब कौन करना चाहेगा उसकी सवारी ?

थक कर जब मैं लेटी खटिया पर
नज़र टिकी उस धूल भरे ढांचे पर
कौतुहल में देखा पास जाके
सकुचाई सी खड़ी थी मेरी साइकिल 

बल्लियों उछल रहे थे हम दोनों
अरसों बाद आज फिर मिल रहे थे 
लगा ली आज फिर गिलहरी से रेस 
छोड़ के पीछे मोटर - भैंस  J

                                                                         --- सुरभि बाफना